विघ्नेश्वर हैं श्रीगणेश
भारतीय संस्कृति में श्रीगणेश जी का स्थान सर्वोपरि है। प्रत्येक शुभ कार्य में सबसे पहले भगवान गणेश की ही पूजा होती है। सनातन धर्म के हर ग्रंथ का यही संदेश है कि कोई भी काम करने से पहले सर्वप्रथम गणेशजी का पूजन करना चाहिए।
देवताओं के भी पूजनीय
देवता भी अपने कार्यो की निर्विध्न पूर्णता के लिए गणेश जी की अर्चना करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि देवगणों ने स्वयं उनकी अग्रपूजा का विधान बनाया है। भगवान शंकर त्रिपुरासुर का वध करने में जब असफल हुए, तब उन्होंने गंभीरतापूर्वक विचार किया कि आखिर उनके कार्य में विघ्न क्यों पड़ा? महादेव को ज्ञात हुआ कि वे गणेशजी की अर्चना किए बगैर त्रिपुरासुर से युद्ध करने चले गए थे। इसके बाद शिवजी ने गणेशजी का पूजन करके उन्हें लड्डुओं का भोग लगाया और दोबारा त्रिपुरासुर पर प्रहार किया, तब उनका मनोरथ पूर्ण हुआ। इसी तरह महिषासुर संग्राम से पहले भगवती दुर्गा भी गणेश जी का स्मरण करना भूल गई थीं। जिसके कारण पहली बार में उन्हें सफलता नहीं मिली। फिर गणेश-पूजा करने के बाद ही मां भवानी महिषासुर का संहार करने में सफल हुई। गणेशजी की अवहेलना करके उनके माता-पिता भी अपना लक्ष्य पूर्ण करने में असमर्थ हो गए थे। वस्तुत: देवताओं ने गणेश जी को अपना अधिपति बनाकर उन्हें यह अधिकार दिया है कि जो व्यक्ति उनसे विमुख होकर किसी कार्य का प्रारंभ करेगा, उसे बाधाओं का सामना करना पड़ेगा।
आदिदेव हैं गणपति
पुराणों के अनुसार भगवान गणेश का पूजन करने से समस्त देवी-देवताओं की पूजा का प्रतिफल प्राप्त हो जाता है। श्रुतियों में गणेशजी को प्रणव का साक्षात स्वरूप बताया गया है। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आदिदेव गणेश ही ब्रह्माजी के रूप में सृष्टि का सृजन करते हैं, विष्णु रूप में संसार का पालन करते हैं और रुद्र (महेश) के रूप संहार करते हैं। गणेशजी के एकदंत गजमुख को ध्यान से देखने पर प्रणव (ॐ) ही दृष्टिगोचर होता है। भगवान गणेश की पूजा-पद्धति अत्यंत सरल है।
उनकी पूजन सामग्री में मोदक, सिंदूर और हरी दूब को अवश्य शामिल किया जाता है। यदि गणेश जी की मूर्ति उपलब्ध न हो तो एक सुपारी पर मौली (लाल रंग का कच्चा धागा) बांधकर उनका प्रतिरूप बनाया जाता है। उनकी पूजा में स्वस्तिक की आकृति बनाई जाती है, जो गणेश परिवार का प्रतीक है, जिसमें उनकी पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि तथा पुत्र शुभ-लाभ शामिल हैं।
महाराष्ट्र में गणेशोत्सव
गणेश पुराण के मतानुसार भगवान गणेश शिव-पार्वती के यहां पुत्र रूप में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी के दूसरे पहर में प्रकट हुए थे। इसीलिए महाराष्ट्र में चतुर्थी से चतुर्दशी तक गणेशोत्सव मनाए जाने का शुभारंभ हुआ। जिसे लोकमान्य तिलक के कारण सार्वजनिक उत्सव का स्वरूप प्राप्त हुआ। अब यह गणेशोत्सव महाराष्ट्र की सीमाएं लांघकर संपूर्ण भारतवर्ष में लोकप्रिय हो गया है। गणेशजी के आविर्भाव की तिथि होने के कारण चतुर्थी का विशेष आध्यात्मिक महत्व है। शुक्लपक्ष की चतुर्थी को वैनायकी चतुर्थी कहते हैं। इस तिथि में व्रत करते हुए सिद्धि विनायक की पूजा करने से मनोकामना पूर्ण होती है। कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय चतुर्थी को सकंष्टी चतुर्थी कहते हैं। संकष्टी चतुर्थी का विधिवत व्रत करने से समस्त संकट दूर होते हैं तथा असंभव भी संभव हो जाता है। सही मायने में गणेश जी सबके लिए प्रथम पूज्य हैं। इनकी शरण में आकर समस्त विघ्न-बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है।