वास्तु शास्त्र का परिचय | Introduction to Vastu Shastra.
ब्रह्मांडीय ऊर्जा अथवा वास्तु ऊर्जा का प्रभाव एवं केंद्रीयकरण।
आदि काल से हिंदू धर्म ग्रंथों में चुबंकीय प्रवाहों, दिशाओं, वायु प्रभाव, गुरुत्वाकर्षण के नियमों को ध्यान में रखते हुए वास्तु शास्त्र की रचना की गयी तथा यह बताया गया कि इन नियमों के पालन से मनुष्य के जीवन में सुख-शांति आती है और धन-धान्य में भी वृद्धि होती है।
वास्तु वस्तुतः पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्नि इन पांच तत्वो के समानुपातिक सम्मिश्रण का नाम है। इसके सही सम्मिश्रण से ‘बायो-इलेक्ट्रिक मैग्नेटिक एनर्जी‘ की उत्पत्ति होती है, जिससे मनुष्य को उत्तम स्वास्थ्य, धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
मानव शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है, क्योकि मानव शरीर पंच तत्वों से निर्मित होता है और अंततः पंच तत्वों में ही विलीन हो जाता है। जिन पांच तत्वों पर शरीर का समीकरण निर्मित और ध्वस्त होता है, वह निम्नानुसार है।
आकाश़ + अग्ऩि + वायु़ + जल़ + पृथ्वी = निर्माण क्रिया
देह या शरीर-वायु-जल-अग्नि-पृथ्वी-आकाश = ध्वंस प्रक्रिया
मस्तिष्क में आकाश, कंधों में अग्नि, नाभि में वायु, घुटनों में पृथ्वी, पादांत में जल आदि तत्वों का निवास है और आत्मा परमात्मा है, क्योंकि दोनों ही निराकार है। दोनों को ही महसूस किया जा सकता है। इसी लिए स्वर महाविज्ञान में प्राण वायु आत्मा मानी गयी है और यही प्राण वायु जब शरीर (देह) से निकल कर सूर्य में विलीन हो जाती है, तब शरीर विद्यमान हो जाता है। इसी लिए सूर्य ही भूलोक में समस्त जीवों, पेड-पौधों का जीवन आधार है; अर्थात् सूर्य सभी प्राणियों के प्राणों का स्त्रोत है। यही सूर्य जब उदय होता है, तब संपूर्ण संसार में प्राणाग्नि का संचार आरंभ होता है, क्योंकि सूर्य की रश्मियों में सभी रोगों को नष्ट करने की शक्ति मौजूद है। सूर्य पूर्व दिशा में उगता हुआ पश्चिम में अस्त होता है। इसी लिए भवन निर्माण में ‘ओरिएंटेशन‘ का स्थान प्रमुख है। भवन निर्माण में सूर्य ऊर्जा, वायु ऊर्जा, चंद्र ऊर्जा आदि के पृथ्वी पर प्रभाव प्रमुख माने जाते है।