महाराणा प्रताप जयंती स्पेशल : महाराणा प्रताप की जीवनी और इतिहास | Maharana Pratap Biography and History
महाराणा प्रताप मेवाड़ के शाषक और एक वीर योद्धा थे जिन्होंने कभी अकबर की अधीनता स्वीकार नही की | उनके जन्म दिवस “महाराणा प्रताप जयंती ” हो हर वर्ष जयेष्ट शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन मनाया जाता है। …
महाराणा प्रताप उदयपुर के संस्थापक उदय सिंह II और महारानी जयवंता बाई के जयेष्ट पुत्र थे। उनका जन्म सिसोदिया कुल में हुआ था। महाराणा प्रताप जीवन पर्यन्त मुगलों से लड़ते रहे और कभी हार नही मानी। युवाओं और राजपूतो के लिए महाराणा प्रताप अपनी वीरता और कुशलता के लिए प्रेरणादायक योद्धा है।
महाराणा प्रताप का इतिहास | Maharana Pratap History and Jayanti In Hindi
महाराणा प्रताप जीवनी एवम इतिहास
आइये आज हम उनकी सम्पूर्ण जीवन की कहानी आपको बताते है।
क्र |
जीवन परिचय बिंदु |
प्रताप जीवन परिचय |
1 |
पिता |
राणा उदय सिंह |
2 |
माता |
जयवंता बाई जी |
3 |
पत्नी |
अजबदे |
4 |
जन्म |
9 मई 1540 |
5 |
मृत्यु |
29 जनवरी 1597 |
6 |
पुत्र |
अमर सिंह |
7 |
घोड़ा |
चेतक |
महाराणा प्रताप जीवन कहानी (Maharana Pratap Life Story)
महाराणा प्रताप का जन्म दिन आज के कैलेंडर के अनुसार 9 मई 1540 में उत्तर दक्षिण भारत के मेवाड़ में हुआ था. हिंदी पंचाग के अनुसार यह दिन ज्येष्ठ माह शुक्ल पक्ष की तीज को आता हैं. आज भी इस दिन राजस्थान में प्रताप का जन्मदिन मनाया जाता हैं. प्रताप उदयपुर के राणा उदय सिंह एवम महारानी जयवंता बाई के पुत्र थे. महाराणा प्रताप की पहली रानी का नाम अजबदे पुनवार था. अमर सिंह और भगवान दास इनके दो पुत्र थे. अमर सिंह ने बाद में राजगद्दी संभाली थी।
महारानी जयवंता के अलावा राणा उदय सिंह की और भी पत्नियाँ थी जिनमे रानी धीर बाई उदय सिंह की प्रिय पत्नी थी. रानी धीर बाई की मंशा थी कि उनका पुत्र जगमाल राणा उदय सिंह का उत्तराधिकारी बने. इसके अलावा राणा उदय सिंह के दो पुत्र शक्ति सिंह और सागर सिंह भी थे. इनमे भी राणा उदय सिंह के बाद राजगद्दी सँभालने की मंशा थी, लेकिन प्रजा और राणा जी दोनों ही प्रताप को ही उत्तराधिकारी के तौर पर मानते थे. इसी कारण यह तीनो भाई प्रताप से घृणा करते थे।
इसी घृणा का लाभ उठाकर मुग़लों ने चित्तोड़ पर अपना विजय पताका फैलाया था. इसके आलावा भी कई राजपूत राजाओं ने अकबर के आगे घुटने टेक दिए थे और आधीनता स्वीकार की जिसके कारण राजपुताना की शक्ति भी मुगलों को मिल गई जिसका प्रताप ने अंतिम सांस तक डटकर मुकाबला किया लेकिन राणा उदय सिंह और प्रताप ने मुगलों की आधीनता स्वीकार नहीं की.आपसी फुट एवम परवारिक मतभेद के कारण राणा उदय सिंह एवम प्रताप चित्तोड़ का किला हार गए थे लेकिन अपनी प्रजा की भलाई के लिए वे दोनों किले से बाहर निकल जाते हैं. और प्रजा को बाहर से संरक्षण प्रदान करते हैं.पूरा परिवार एवम प्रजा अरावली की तरफ उदयपुर चला जाता हैं.अपनी मेहनत और लगन से प्रताप उदयपुर को वापस समृद्ध बनाते हैं और प्रजा को संरक्षण प्रदान करते हैं।
प्रताप के खिलाफ थे राजपुताना
अकबर से डर के कारण अथवा राजा बनने की लालसा के कारण कई राजपूतों ने स्वयं ही अकबर से हाथ मिला लिया था. और इसी तरह अकबर राणा उदय सिंह को भी अपने आधीन करना चाहते थे।
अकबर ने राजा मान सिंह को अपने ध्वज तले सेना का सेनापति बनाया इसके आलावा तोडरमल, राजा भगवान दास सभी को अपने साथ मिलाकर 1576 में प्रताप और राणा उदय सिंह के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
हल्दीघाटी युद्द (Haldi Ghati War)
यह इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था, इसमें मुगलों और राजपूतों के बीच घमासान हुआ था, जिसमे कई राजपूतों ने प्रताप का साथ छोड़ दिया था और अकबर की आधीनता स्वीकार की थी।
1576 में राजा मान सिंह ने अकबर की तरफ से 5000 सैनिकों का नेतृत्व किया और हल्दीघाटी पर पहले से 3000 सैनिको को तैनात कर युद्ध का बिगुल बजाया. दूसरी तरफ अफ़गानी राजाओं ने प्रताप का साथ निभाया, इनमे हाकिम खान सुर ने प्रताप का आखरी सांस तक साथ दिया. हल्दीघाटी का यह युद्ध कई दिनों तक चला. मेवाड़ की प्रजा को किले के अंदर पनाह दी गई. प्रजा एवम राजकीय लोग एक साथ मिलकर रहने लगे.लंबे युद्ध के कारण अन्न जल तक की कमी होने लगी. महिलाओं ने बच्चो और सैनिको के लिए स्वयम का भोजन कम कर दिया. सभी ने एकता के साथ प्रताप का इस युद्ध में साथ दिया.उनके हौसलों को देख अकबर भी इस राजपूत के हौसलों की प्रसंशा करने से खुद को रोक नहीं पाया.लेकिन अन्न के आभाव में प्रताप यह युद्ध हार गये. युद्ध के आखरी दिन जोहर प्रथा को अपना कर सभी राजपूत महिलाओं ने अपने आपको अग्नि को समर्पित कर दिया. और अन्य ने सेना के साथ लड़कर वीरगति को प्राप्त किया. इस सबसे वरिष्ठ अधिकारीयों ने राणा उदय सिंह, महारानी धीर बाई जी और जगमाल के साथ प्रताप के पुत्र को पहले ही चित्तोड़ से दूर भेज दिया था. युद्ध के एक दिन पूर्व उन्होंने प्रताप और अजब्दे को नीन्द की दवा देकर किले से गुप्त रूप से बाहर कर दिया था. इसके पीछे उनका सोचना था कि राजपुताना को वापस खड़ा करने के लिए भावी संरक्षण के लिए प्रताप का जिन्दा रहना जरुरी हैं।
मुगुलो ने जब किले पर हक़ जमाया तो उन्हें प्रताप कहीं नहीं मिला और अकबर का प्रताप को पकड़ने का सपना पूरा नही हो पाया।
युद्ध के बाद कई दिनों तक जंगल में जीवन जीने के बाद मेहनत के साथ प्रताप ने नया नगर बसाया जिसे चावंड नाम दिया गया. अकबर ने बहुत प्रयास किया लेकिन वो प्रताप को अपने अधीन ना कर सका।
महाराणा प्रताप व उनकी पत्नी अजब्देह की कहानी (Pratap and Ajabade Love Story)
अजब्दे सामंत नामदे राव राम रख पनवार की बेटी थी. स्वभाव से बहुत ही शांत एवं सुशील थी. यह बिजोली की राजकुमारी थी. बिजोली चित्तोड़ के आधीन था. प्रताप की माँ जयवंता एवम अजबदे की माँ अपने बच्चो के विवाह के पक्ष में थी. उस वक्त बाल विवाह की प्रथा थी. अजबदे ने प्रताप को कई परिस्थितियों में उचित निर्णय लेने में साथ दिया था. वो हर तरह से महारानी जयवंता बाई जी की छवि थी. उन्होंने युद्ध के दौरान भी प्रजा के बीच रहकर उनके मनोबल को बनाये रखा था।
अजबदे प्रताप की पहली पत्नी थी. इसके आलावा इनकी 11 पत्नियाँ और भी थी. प्रताप के कुल 17 पुत्र एवम 5 पुत्रियाँ थी.जिनमे अमर सिंह सबसे बड़े थे. वे अजबदे के पुत्र थे. महाराणा प्रताप के साथ अमर सिंह ने शासन संभाला था।
महाराणा प्रताप और चेतक का अनूठा संबंध (Maharana Pratap horse chetak story)
चेतक, महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय घोड़ा था. चेतक में संवेदनशीलता, वफ़ादारी और बहादुरी कूट कूट कर भारी हुई थी. यह नील रंग का अफ़गानी अश्व था।
एक बार, राणा उदय सिंह ने बचपन में प्रताप को राजमहल में बुलाकर दो घोड़ो में से एक का चयन करने कहा. एक घोडा सफ़ेद था और दूसरा नीला. जैसे ही प्रताप ने कुछ कहा उसके पहले ही उनके भाई शक्ति सिंह ने उदय सिंह से कहा उसे भी घोड़ा चाहिये शक्ति सिंह शुरू से अपने भाई से घृणा करते थे।
प्रताप को नील अफ़गानी घोड़ा पसंद था लेकिन वो सफ़ेद घोड़े की तरफ बढ़ते हैं और उसकी तारीफों के पूल बाँधते जाते हैं उन्हें बढ़ता देख शक्ति सिंह तेजी से सफ़ेद घोड़े की तरफ जा कर उसकी सवारी कर लेते हैं उनकी शीघ्रता देख राणा उदय सिंह शक्ति सिंह को सफ़ेद घोड़ा दे देते हैं और नीला घोड़ा प्रताप को मिल जाता हैं. इसी नीले घोड़े का नाम चेतक था, जिसे पाकर प्रताप बहुत खुश थे।
प्रताप की कई वीरता की कहानियों में चेतक का अपना स्थान हैं. चेतक की फुर्ती के कारण ही प्रताप ने कई युद्धों को सहजता से जीता. प्रताप अपने चेतक से पुत्र की भांति प्रेम करते थे।
हल्दी घाटी के युद्ध में चेतक घायल हो जाता हैं. उसी समय बीच में एक बड़ी नदी आ जाती हैं जिसके लिए चेतक को लगभग 21 फिट की चौड़ाई को फलांगना पड़ता हैं. चेतक प्रताप की रक्षा के लिए उस दुरी को फलांग कर तय करता हैं लेकिन घायल होने के कारण कुछ दुरी के बाद अपने प्राण त्याग देता हैं. 21 जून 1576 को चेतक प्रताप से विदा ले लेता हैं. इसके बाद आजीवन प्रताप के मन में चेतक के लिए एक टीस सी रह जाती हैं।
आज भी हल्दीघाटी में राजसमंद में चेतक की समाधी हैं जिसे दर्शनार्थी उसी श्र्द्धा से देखते हैं जैसे प्रताप की मूरत को।
चेतक की विरता पर
“रण बीच चोकड़ी भर-भर कर चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा का पाला था,
जो तनिक हवा से बाग़ हिली लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं,तब तक चेतक मुड जाता था।”
महाराणा प्रताप की मृत्यु (Maharana Pratap Death Date)
प्रताप एक जंगली दुर्घटना के कारण घायल हो जाते हैं. 29 जनवरी 1597 में प्रताप अपने प्राण त्याग देते हैं. इस वक्त तक इनकी उम्र केवल 57 वर्ष थी. आज भी उनकी स्मृति में राजस्थान में महोत्सव होते हैं.उनकी समाधी पर लोग श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
प्रताप के शौर्यता से अकबर भी प्रभावित था. प्रताप और उनकी प्रजा को अकबर सम्मान की दृष्टि से देखते थे. इसलिये हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान उनकी सेना में वीरगति को प्राप्त होने वाले सैनिकों एवम सामंतों को हिन्दू रीती अनुसार श्रद्धा के साथ अंतिम विदा दी जाती थी।
प्रताप की मृत्यु के बाद मेवाड़ और मुग़ल का समझौता (After Pratap’s Death)
प्रताप की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र अमर सिंह ने राजगद्दी संभाली. शक्ति की कमी होने के कारण अमर सिंह ने अकबर के बेटे जहाँगीर के साथ समझौता किया, जिसमे उन्होंने मुगलों की आधीनता स्वीकार की, लेकिन शर्ते रखी गई. इस आधीनता के बदले मेवाड़ और मुगलों के बीच वैवाहिक संबंध नहीं बनेंगे. यह भी निश्चित किया गया कि मेवाड़ के राणा मुग़ल दरबार में नहीं बैठेंगे, उनके स्थान पर राणा के छोटे भाई एवम पुत्र मुग़ल दरबार में शामिल होंगे. इसके साथ ही चितौड़ के किले को मुगुलों के आधीन दुरुस्त करवाने की मुगलों की इच्छा को भी राजपूतों ने मानने से इनकार किया, क्यूंकि भविष्य में मुगल इस बात का फायदा उठा सकते थे।
इस तरह महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद मेवाड़ और मुगलों के बीच समझौता स्वीकार किया गया, लेकिन महाराणा प्रताप में जीते जी इस आधीनता को स्वीकार नहीं किया, विकट स्थिती में भी धेर्यता के साथ आगे बढ़ते रहे।
भामाशाह का योगदान और महाराणा का विजय अभियान
भामाशाह चितौड़ के बड़े धनपति थे. उनके पास अपार धन सम्पदा थी, मुगलों के आक्रमण के बाद उन्होंने चितौडगढ़ का त्याग कर दिया था. कई वर्षों तक उन्होंने मुगलों से अपनी धन संपत्ति को छुपाये रखा. वे कई दिनों से राणा प्रताप की तलाश में थे क्योंकि उन्हें पता था की राणा को युद्ध के लिए धन की आवश्यकता है. उनकी हार्दिक इच्छा थी की महाराणा उनका धन ले ले और एक मजबूत सेना का गठन कर मुगलों से अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराएँ. जब भामाशाह को राणा प्रताप का पता चला तो वो तुरंत अपना सब कुछ लेकर राणा प्रताप के पास जा पहुंचे, उन्होंने आग्रह किया की ये धन वो ले ले और एक सेना का संगठन कर मुगलों को मुंह तोड़ जवाब दे. भामाशाह का निवेदन को महाराणा प्रताप ने अति संकोच के साथ स्वीकार किया. यह राशी इतनी बड़ी थी की इससे 5000 हजार सैनिकों को 12 वर्षों तक वेतन दिया जा सकता था. इतनी बड़ी राशी का योगदान देकर भामाशाह इतिहास में अपना नाम अमर करवा गए. महाराणा प्रताप ने भी उनकी अपने मातृभूमि के लिए योगदान देने पर बहुत प्रसंशा किये. सबने भामाशाह का कृतज्ञता व्यक्त की सबके चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे।
हिंदी पंचाग के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की तीज को आता हैं, इसलिए प्रतिवर्ष महाराणा प्रताप की जयंती इस दिन मनाई जाती है। इस वर्ष 2017 में 28 मई 2017, दिन रविवार को मनाई जाएगी।
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महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास के एक अत्यंत गौरवशाली पात्र है। उनके त्याग, शौर्य और राष्ट्रभक्ति की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। वह आज भारत में शौर्य, साहस और स्वाभिमान का प्रतीक बन गये है।
Jai Hind!
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